
veer narayan singh the first martyr of chhattisgarh
(Story of veer narayan singh the first martyr of chhattisgarh) छत्तीसगढ़ के प्रथम शहीद सेनानी वीर नारायण सिंह का जन्म 1795 में सोनाखान के जमींदार परिवार में हुआ था। जो वर्तमान में बलौदाबाजार जिले के अंतर्गत आता है। वे बिंझवार आदिवासी समुदाय से ताल्लुख रखते थे। देशभक्ति और निडरता उन्हें अपने पिता रामसाय से विरासत में मिली थी। उनके पिता ने 1818-19 के दौरान अंग्रेजों तथा भोंसले राजाओं के विरुद्ध तलवार उठाई लेकिन कैप्टन मैक्सन ने विद्रोह को दबा दिया। इसके बाद भी बिंझवार आदिवासियों के सामर्थ्य और संगठित शक्ति के कारण जमींदार रामसाय का सोनाखान क्षेत्र में दबदबा बना रहा, जिसके चलते अंग्रेजों ने उनसे संधि कर ली थी। देशभक्ति और निडरता वीर नारायण सिंह को पिता से विरासत में मिली थी। पिता की मृत्यु के बाद 1830 में वे सोनाखान के जमींदार बने।
नारायण सिंह के पास एक स्वामीभक्त घोड़ा था। वे अपने घोड़े पर सवार होकर अपने रियासत का भ्रमण किया करते थे। भ्रमण के दौरान एक बार उन्हें पता चला कि सोनाखान क्षेत्र में एक नरभक्षी शेर आतंक मचा रहा है। जिसके कारण प्रजा भयभीत है। प्रजा का भय दूर करने वह तुरंत तलवार लेकर जंगल में जाकर नरभक्षी शेर को ढेर कर दिया। उनकी इस बहादुरी के कारण उन्हें वीर की उपाधि दी गई और वे वीर नारायण सिंह के नाम से प्रसिद्ध हो गए।
गोदाम के ताले तुड़वा दिए और अनाज निकाल कर ग्रामीणों में बंटवा दिया :
स्वभाव से परोपकारी, न्यायप्रिय तथा कर्मठ वीर नारायण जल्द ही लोगों के प्रिय जननायक बन गए। 1854 में अंग्रेजों ने नए ढंग से टकोली लागू की, इसे जनविरोधी बताते हुए वीर नारायण सिंह ने इसका भरसक विरोध किया। इससे रायपुर के तात्कालीन डिप्टी कमिश्नर इलियट उनके घोर विरोधी हो गए ।
1856 में छत्तीसगढ़ में भयानक सूखा पड़ा था, अकाल और अंग्रेजों द्वारा लागू किए कानून के कारण प्रांत वासी भुखमरी का शिकार हो रहे थे। कसडोल के व्यापारी माखन का गोदाम अन्न से भरा था। वीर नारायण ने उससे अनाज गरीबों में बांटने का आग्रह किया लेकिन वह तैयार नहीं हुआ। इसके बाद उन्होंने माखन के गोदाम के ताले तुड़वा दिए और अनाज निकाल ग्रामीणों में बंटवा दिया। उनके इस कदम से नाराज ब्रिटिश शासन ने उन्हें 24 अक्टूबर 1856 में संबलपुर से गिरफ्तार कर रायपुर जेल में बंद कर दिया। वे 10 महीने 4 दिन तक जेल में बंद रहे। इस गिरफ्तारी की व्यापक प्रतिक्रिया हुई और अंग्रेजो के खिलाफ आदिवासियों के साथ साथ कई राजा और स्वाभिमानी जमींदार उठ खड़े हुए। रायपुर जेल में बंद छत्तीसगढ़ में क्रांति के प्रणेता नारायण सिंह के हृदय में राष्ट्रप्रेम उच्चतम शिखर पर जा पहुंचा।
सोनाखान विद्रोह (Sonakhan Vidroh):
1857 में जब स्वतंत्रता की लड़ाई तेज हुई तो प्रांत के लोगों ने जेल में बंद वीर नारायण को ही अपना नेता मान लिया और समर में शामिल हो गए। उन्होंने अंग्रेजों के बढ़ते अत्याचारों के खिलाफ बगावत करने की ठान ली थी।
अट्ठारह सौ सत्तावन के स्वतंत्रता संग्राम की पूर्व बेला में रायपुर तीसरी देशी रेजिमेंट का मुख्यालय था जिसके गार्ड रायपुर जेल में ड्यूटी पर तैनात थे। उनके मन में ही स्वतंत्रता प्रेम की भावना पैदा हो चुकी थी। जब क्षेत्र के ग्रामीणों और जिम्मेदारों ने नारायन सिंह को अपना नेता चुना तो ऐसे सैनिकों ने उनकी हर संभव सहायता की। उक्त रेजीमेंट के कुछ सैनिकों ने उन्हें स्वतंत्रता संग्राम का नेता मांग कर जेल में एक सुरंग बनाई और 27 अगस्त अट्ठारह सौ सत्तावन की रात नारायण सिंह कारागार से बाहर निकल गए। वे वहां से निकल कर सोनाखान पहुंच गए और जनता का मनोबल झूम उठा। नारायण के नेतृत्व में 500 सैनिकों की एक सेना तैयार हो गई। इस मामले की सूचना रायपुर के डिप्टी कमिश्नर इलियट के पास से होकर नागपुर के कमिश्नर को पहुंची। सैनिक विद्रोह के भय से गवर्नर जनरल को दिल्ली पत्र लिखकर मद्रास रेजीमेंट को नागपुर में रोकने का आग्रह किया गया। यह प्रार्थना स्वीकार कर ली गई। उधर नारायण सिंह ने सोनाखान की ओर आने वाले हर रास्ते पर नाकेबंदी कर मजबूत दीवारें खड़ा करवा दी और साहस के साथ रसद, शस्त्र, गोला, बारूद इकट्ठा कर मोर्चा संभाल लिया। उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध खुली बगावत का ऐलान कर दिया। रायपुर के डिप्टी कमिश्नर इलियट ने रायपुर में फौज होने के बावजूद सोनाखान पर आक्रमण करने 20 दिन लगा दिए। लेफ्टिनेंट स्मिथ को आदेश दिया गया कि वह सोनाखान जाए। 20 नवंबर अट्ठारह सौ सत्तावन को सुबह रायपुर से लेफ्टिनेंट नेपियर के अतिरिक्त 53 पुलिस सवार, चार दफादार तथा एक जमीदार की सेना को साथ लेकर लेफ्टिनेंट स्मिथ सोनाखान रवाना हुआ। कुछ धोखेबाज जमीदारों ने अंग्रेजों का साथ दिया। उसने खरोज थाने में अपना डेरा डाला।
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नारायण सिंह की सेना की गोलियां खत्म हो गई फिर भी डटे रहे:
21 नवंबर अट्ठारह सौ सत्तावन की रात्रि में वह रास्ता भटक गया और सोनाखान में नारायन सिंह के द्वारा रास्ते में ऊंची दीवार खड़ा करने तथा उनकी सेना के तैयार रहने के कारण उसे रायपुर से 70 मील दूर एक गांव करौंदी में रुकना पड़ा। स्मिथ ने कटगी. बड़गांव तथा बिलाईगढ़ के जमीदारों के साथ-साथ बिलासपुर की सैन्य सहायता ली। 26 नवंबर की रात्रि में नारायन सिंह का एक घुड़सवार करौंद में गिरफ्तार किया गया। उसने बताया कि नारायण के पास 500 सिपाही तथा 7 तोपें हैं। 30 नवंबर को स्मिथ देवरी पहुंचा। नारायण सिंह के काका ने पारिवारिक कटुता के कारण अंग्रेजों का साथ दिया। नारायण सिंह ने इस बीच सोनाखान खाली कर पहाड़ों पर मोर्चा लेने की तैयारी प्रारंभ कर दी थी। उन्होंने अपने परिवार जनों और संपत्तियों के साथ अपने पुत्र गोविंद सिंह को सोनाखान से बाहर भेज दिया था। इसके बाद स्मिथ ने खाली पड़े गांव में आग लगा दी। गांव जलकर खाक हो गया। गांव के लोग पहाड़ी पर थे ,जंगल के दूसरी ओर से नारायण सिंह की सेना ने गोली की बौछार शुरू की। अंग्रेजों की फौज गांव से हट गई। रात्रि में अंग्रेजों ने पहाड़ियों की टोली और वहां पर हलचल देखी। 2 दिसंबर को अगली सुबह 10 बजे कटगी से एक और अंग्रेजों की फौज सहायता के लिए पहुंच गई। नारायन सिंह ने सोनाखान से 7 मील की दूरी पर ही तोपों से अंग्रेजी सेना पर आक्रमण की योजना बनाई थी। पर देवरी के जमींदार महाराज द्वारा धोखा दिया गया और उनकी टुकड़ी इधर-उधर बिखर गई। मुकाबला हुआ पर नारायण सिंह की सेना की गोलियां खत्म हो गई। वे अपनी बची हुई जनता की रक्षा के लिए अपने एक साथी के साथ स्मिथ के पास पहुंच गए। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 5 सितंबर अट्ठारह सौ सत्तावन को रायपुर में डिप्टी कमिश्नर इलियट के सुपुर्द कर दिया गया। दिए।
वीरनारायण सिंह को फांसी 10 दिसंबर 1857 को हुई :
अंग्रेज सरकार के विरुद्ध विद्रोह करने का आरोप लगाकर उनके खिलाफ अदालत में मुकदमा चलाया गया और मौत की सजा सुनाई गई। 10 दिसंबर 1857 को ब्रिटिश सरकार ने उन्हें फांसी में लटका दिया फिर सरेआम तोप से उड़ा दिया।
इस स्थान को अब जयस्तंभ चौक कहां जाता है। छत्तीसगढ़ अंचल में अट्ठारह सौ सत्तावन के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के अमर शहीद नारायन सिंह के परिजन ब्रिटिश शासन के कोप भाज बने रहे। उनका संपूर्ण परिवार आर्थिक दृष्टि से तहस-नहस कर दिया गया। उनके वंशजों को शिक्षा से वंचित कर कठिन तप अस्तित्व में ला खड़ा कर दिया गया। आज इस अमर शहीद के वंशज सोनाखान एवं उसके आसपास के फुलझर राज् के ग्राम गोडमर्रा में निवास कर रहे हैं।
भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह ने अपने शासनकाल में उनके वंशजों को पांच 5 एकड़ जमीन दी है और पेंशन की राशि में वृद्धि की है। शहीद वीर नारायण सिंह की स्मृति को स्थाई बनाने के उद्देश्य से उनके नाम पर कोडार नदी पर लगभग 11 करोड़ रुपये की लागत से बनाए गए बांध का नाम रखा गया है।
शहीद वीर नारायण सिंह को श्रद्धांजलि देने के लिए उनकी 130वीं बरसी पर 1987 में सरकार ने 60 पैसे का स्टाम्प जारी किया, जिसमें वीर नारायण सिंह को तोप के आगे बंधा दिखाया गया।
शहीद वीर नारायण सिंह अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम का निर्माण :
रायपुर क्रिकेट संघ ने शहीद वीर नारायण सिंह अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम का निर्माण साल 2008 में करवाया। यह स्टेडियम कोलकाता के ईडन गार्डन के बाद देश का दूसरा सबसे बड़ा स्टेडियम है। इसमें एक बार में 65,000 दर्शक मैच का लुत्फ ले सकते हैं। निर्माण के बाद से अब तक यहां अंतर्राष्ट्रीय स्तर के चार मैच हुए हैं। 2010 में छत्तीसगढ की टीम का कनाडा की टीम से मुकाबला हुआ था, 2013 में आईपीएल के 2 मैच, सितंबर 2014 में चैम्पियंस लीग के 8 मैच और इस साल मई में आईपीएल के दो मैच इसी मैदान में खेले गए थे।